The Real Story (Hindi)

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The Real Story (Hindi)
****एतिहासिक कहानी *****
Part - 1


एक दुर्वासा नाम के काल ब्रह्म के पुजारी (ब्रह्म साधक) थे। वे चले जा रहे थे। रास्ते में एक अप्सरा (स्वर्ग की स्त्राी) सुन्दर मोतियों की माला पहने हुए थी। ऋषि दुर्वासा ने कहा कि यह माला मुझे दे। देवपरी को पता था कि ये ऋषि तो सर्प जैसे हैं, यदि मना कर दिया तो श्राप दे देते हैं। उस अप्सरा ने तुरन्त माला गले से निकाली और ऋषि को आदर के साथ थमा दी। दुर्वासा ऋषि ने वह माला सिर पर बालों के जूड़े में डाल ली। चला जा रहा था। आगे से स्वर्ग का राजा इन्द्र अपने एरावत हाथी पर बैठा आ रहा था। उसके आगे-आगे अप्सराऐं तथा गंद्धर्व जन गाते-बजाते चल रहे थे, और भी करोड़ों देवी-देवता साथ-साथ सम्मान में चल रहे थे। दुर्वासा ऋषि ने माला अपने सिर से उठाकर इन्द्र की ओर फैंक दी। इन्द्र ने वह माला हाथी की गर्दन पर रख दी। हाथी ने वह माला अपने सूंड से उठाकर जमीन पर फैंक दी। जैसे इन्द्र को कोई भक्त या देव कोई फूलमाला भेंट करता था तो इन्द्र उसको बाद में हाथी की गर्दन पर रख देता था जब इन्द्र हाथी पर बैठा हो। हाथी उसे उठाकर नीचे फैंक देता था। हाथी ने उसी रूटीन (routine) में वह माला नीचे फैंक दी थी। (The Real Story)

इस बात से ऋषि दुर्वासा कुपित हो गये और बोले कि हे इन्द्र! तेरे को राज्य का अभिमान है। मेरे द्वारा दी गई माला का तूने अनादर किया है। मैं श्राप देता हूँ कि तेरा सर्व राज्य नष्ट हो जाए। देवराज इन्द्र एकदम काँपने लगा और बोला हे विप्र! मैंने आपकी माला को आदर से ग्रहण करके हाथी के ऊपर रखा था। हाथी ने अपनी औपचारिकतावश नीचे डाल दी, मुझे क्षमा करें। बार-बार करबद्ध होकर हाथी से नीचे उतरकर दण्डवत् प्रणाम करके भी क्षमा याचना इन्द्र ने की, परंतु दुर्वासा ऋषि नहीं माने और कहा कि जो मैंने कह दिया वह वापिस नहीं हो सकता। कुछ ही समय में इन्द्र का सर्वनाश हो गया, स्वर्ग उजड़ गया।(The Real Story)
एक बार ऋषि दुर्वासा जी द्वारका नगरी के पास जंगल में कुछ समय के लिए रूके। द्वारकावासियों को पता चला कि दुर्वासा जी अपनी नगरी के पास आए हैं। ये त्रिकालदर्शी महात्मा हैं, सिद्धियुक्त ऋषि हैं। द्वारकावासी श्री कृष्ण से अधिक शाक्तिशाली किसी को नहीं मानते थे। श्री कृष्ण के पुत्रा श्री प्रद्यूमन सहित कई यादवों ने योजना बनाई कि सुना है दुर्वासा जी त्रिकालदर्शी हैं, मन की बात भी बता देते हैं, अन्तर्यामी हैं, उनकी परीक्षा लेते हैं। यह विचार करके प्रद्यूमन को गर्भवती स्त्राी का स्वांग बनाकर दस-बारह व्यक्ति साथ चले। एक व्यक्ति को उसका पति बना लिया। दुर्वासा जी के पास जाकर कहा कि हे ऋषि जी! इस स्त्राी पर परमात्मा की कृपा बहुत दिनों पश्चात् हुई है, इसको गर्भ रहा है, यह इसका पति है। ये दोनों उतावले हैं कि हमें पता चले कि गर्भ में लड़का है या कन्या। आप तो अन्तर्यामी हैं, कृप्या बताऐं? उन्होंने प्रद्यूमन के पेट पर एक छोटी कढ़ाई बाँध रखी थी, उसके ऊपर रूई का लोगड़ तथा पुराने वस्त्रा बाँधकर गर्भ बना रखा था, ऊपर स्त्राी वस्त्रा पहना रखे थे। ऋषि दुर्वासा जी ने दिव्य दृष्टि से देखा और जाना कि ये मेरा मजाक करने आए हैं। दुर्वासा जी ने कहा कि इस गर्भ से यादव कुल का नाश होगा, इतना कहकर क्रोधित हो गए। सर्व व्यक्ति वहाँ से खिसक गए। नगरी में यह बात आग की तरह फैल गई कि ऋषि दुर्वासा जी ने श्राप दे दिया है कि यादवों का नाश होगा। उनको विश्वास था कि हमारे साथ सर्व शक्तिमान भगवान अखिल ब्रह्माण्ड के नायक श्री कृष्ण हैं। दुर्वासा के श्राप का प्रभाव हम पर नहीं हो पाएगा। फिर भी कुछ बुद्धिमान यादव इकट्ठे होकर श्री कृष्ण जी के पास गए तथा ऋषि दुर्वासा से किया बच्चों का मजाक तथा ऋषि दुर्वासा द्वारा दिये श्राप का वृत्तांत बताया। सर्व वार्ता सुनकर श्री कृष्ण जी ने कुछ देर सोचकर कहा कि उन बच्चों को साथ लेकर दुर्वासा जी के पास जाओ और क्षमा याचना करो। दुर्वासा के पास गए, क्षमा याचना की, परंतु दुर्वासा ने कहा कि जो मैंने बोल दिया, वह वापिस नहीं हो सकता।(The Real Story)


सर्व व्यक्ति फिर से श्री कृष्ण जी के पास गये तथा सर्व बात बताई। द्वारका में भोजन भी नहीं बना। सर्व नगरी चिन्ता में डूब गई। श्री कृष्ण जी ने कहा कि चिन्ता किस बात की। जो वस्तु गर्भ रूप में प्रयोग की थीं, उन्ही से तो हमारा विनाश होना बताया है। ऐसा करो, कपड़ांे तथा रूई को जलाकर तथा लोहे की कढ़ाई को पत्थर पर घिसाकर प्रभास क्षेत्रा (यमुना नदी के किनारे एक स्थान का नाम है) में यमुना नदी में डाल दो। वहीं बैठकर घिसाओ, वहीं चूरा दरिया में डाल दो, वहीं पर राख पानी में डाल दो। न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी। जब गर्भ की वस्तुऐं ही नहीं रहेंगी तो हमारा नाश कैसे होगा? यह बात द्वारिकावासियों को अच्छी लगी और अपने को संकट मुक्त माना। श्री कृष्ण जी के आदेशानुसार सब किया गया। कढ़ाई का एक कड़ा पूरी तरह नहीं घिस पाया। उसको वैसे ही यमुना नदी में फैंक दिया। वह एक मछली ने चमकीला खाद्य पदार्थ जानकर खा लिया। उस मछली को बालीया नामक भील ने पकड़ लिया। जब मछली को काटा तो उससे निकली धातु की जाँच करने के पश्चात् उसको अपने तीर को आगे के हिस्से में विषयुक्त करवाकर लगवा लिया, उसे सुरक्षित रख लिया। जो कढ़ाई का लोहे का चूरा पानी में डाला था, वह लम्बे सरकण्डे जैसे घास के रूप में यमुना नदी के किनारे-किनारे पर उग गया।(The Real Story)
कुछ समय उपरांत द्वारिका नगरी में उत्पात मचने लगा। छोटी-सी बात पर एक-दूसरे का कत्ल करने लगे। आपस में वैर-विरोध बढ़ गया। नगर के लोगों की यह दशा देखकर नगरी के गणमान्य व्यक्ति भगवान श्री कृष्ण जी के पास गए और जो कुछ भी नगरी में हो रहा था, बताया और कारण तथा समाधान श्री कृष्ण जी से जानने की इच्छा व्यक्त की क्योंकि श्री कृष्ण जी यादव तथा पाण्डवों के आध्यात्मिक गुरू थे। संकट का निवारण गुरूदेव से ही कराया जाता है। श्री कृष्ण जी ने कारण बताया कि दुर्वासा ऋषि का श्राप फल रहा है। समाधान है कि सर्व नर (डंसम) यादव चाहे आज का जन्मा भी लड़का क्यों न हो, सब प्रभास क्षेत्रा में जहाँ पर उस कढ़ाई का चूर्ण डाला था, जाकर यमुना में स्नान करो, तुम श्राप मुक्त हो जाओगे। सर्व द्वारिकावासियों ने श्री कृष्ण जी के आदेश का पालन किया। सर्व नर यादव प्रभास क्षेत्रा में श्राप मुक्त होने के उद्देश्य से स्नान करने के लिए चले गए। ऋषि दुर्वासा के श्राप के कारण सर्व यादव समूह बनाकर इकट्ठे हो गए। पहले स्नान किया कि श्राप मुक्त होने के पश्चात् हो सकता है कि आपसी मन-मुटाव दूर हो जाए। परंतु ऐसा कुछ नहीं हुआ। पहले सबने स्नान किया, फिर आपस में गाली-गलोच शुरू हुआ। फिर उस घास को उखाड़कर एक-दूसरे को मारने लगे। जो घास (सरकण्डे) लोहे की कढ़ाई के चूर्ण से उगा था, वह तलवार जैसा कार्य करने लगा। सरकण्डे को मारते ही सिर धड़ से अलग होकर गिरने लगा। इस प्रकार सर्व यादव आपस में लड़कर मृत्यु को प्राप्त हो गए। कुछ दो सौ - चार सौ शेष रहे थे। उसी समय श्री कृष्ण जी भी वहीं पहुँच गए। उन्हांेने भी उस घास को उखाड़ा। उसके लोहे के मूसल बन गए। शेष बचे अपने कुल के व्यक्तियों को स्वयं श्री कृष्ण जी ने मौत के घाट उतारा।(The Real Story)
इसके पश्चात् श्री कृष्ण जी एक वृक्ष के नीचे विश्राम करने लगे। इतने में देवयोग से वह बालीया नामक भील जिसने उस लोहे की कढ़ाई के कड़े का विषाक्त तीर (।ततवू) बनवाया था, उसी तीर को लेकर शिकार की खोज में उस स्थान पर आ गया जहाँ पर श्री कृष्ण जी विश्राम कर रहे थे। श्री कृष्ण जी के दायें पैर के तलवे में पद्म बना था, उसमें सौ वाॅट के बल्ब जैसी चमक थी। वृक्ष की झूर्मुट नीचे तक लटकी थी। उनके बीच से पद्म की चमक स्पष्ट नहीं दिख रही थी। बालीया भील ने सोचा कि यह हिरण की आँख दिखाई दे रही है, इसलिए तीर चला दिया हिरण को मारने के उद्देश्य से। जब तीर श्री कृष्ण जी के पैर में लगा तो श्री कृष्ण जी ने कहा मर गया रे, मर गया। बालीया भील को आभास हुआ कि तीर किसी व्यक्ति को लग गया। दौड़कर गया तो देखा द्वारिकाधीश मारे दर्द के तड़फ रहे थे। बालीया ने कहा कि हे महाराज! मुझसे धोखे से तीर चल गया। आपके पैर की चमक को मैंने हिरण की आँख जानकर तीर मार दिया, मुझसे गलती हो गई, क्षमा करो महाराज। श्री कृष्ण जी ने कहा कि तेरे से कोई गलती नहीं हुई है। यह तेरा और मेरा पिछले जन्म का लेन-देन है, वह मैंने चुका दिया है। तू त्रोतायुग में सुग्रीव का भाई बाली था, मैं रामचन्द्र पुत्रा दशरथ था। मैंने भी तेरे को वृक्ष की औट लेकर धोखे से मारा था। वह अदला-बदला (ज्पज वित जंज) पूरा किया है।(The Real Story)
इस प्रकार दुर्वासा ऋषि के श्राप से सर्व यादव कुल का नाश हुआ जो वर्तमान में यादव हैं। ये वो हैं जो उस समय माताओं के गर्भ में थे, बाद में उत्पन्न हुए थे।(The Real Story)
सूक्ष्मवेद में लिखा है:-
गरीब, दुर्वासा कोपे तहाँ, समझ न आई नीच।
छप्पन करोड़ यादव कटे, मची रूधिर की कीच।। (The Real Story)

सरलार्थ:- दुर्वासा ने बच्चों के मजाक को इतनी गंभीरता से लिया कि उनके कुल का नाश करने का श्राप दे दिया। उस नीच दुर्वासा ने यह भी नहीं सोचा कि क्या अनर्थ हो जाएगा। बात कुछ भी नहीं थी, दुर्वासा नीच ऋषि ने इतना जुल्म कर दिया कि छप्पन करोड़ यादव कटकर मर गए और रक्त के बहने से कीचड़ बन गया।(The Real Story)
इसी प्रकार चुणक ऋषि ने बेमतलब पंगा लेकर मानधाता राजा की 72 करोड़ सेना का नाश कर दिया।(The Real Story)
एक कपिल नाम के ऋषि थे जिनको भगवान विष्णु के 24 अवतारों में से एक अवतार भी माना जाता है, वे तपस्या कर रहे थे।(The Real Story)
एक सगड़ राजा था। उसके 60 हजार पुत्रा थे। किसी ऋषि ने बताया कि यदि एक तालाब, एक कुआँ, एक बगीचा बना दिया जाए तो एक अश्वमेघ यज्ञ जितना फल मिलता है। राजा सगड़ के लड़कों ने यह कार्य शुरू कर दिया। समझदार व्यक्तियों ने उनसे कहा कि आप ऐसे जगह-जगह तालाब, कुएँ, बगीचे बनाओगे तो पृथ्वी पर अन्न उत्पन्न करने के लिए स्थान ही नहीं रहेगा। किसी राजा ने विरोध किया तो उससे लड़ाई कर ली। उन राजा सगड़ के लड़कों ने एक घोड़ा अपने साथ लिया। उसके गले में पत्रा लिखकर बाँध दिया कि यदि कोई हमारे कार्य में बाधा करेगा, वह इस घोड़े को पकड़ ले और युद्ध के लिए तैयार हो जाए। उन सिरफिरों से कौन टक्कर ले? पृथ्वी देवी भगवान विष्णु जी के पास गई। एक गाय का रूप धारण करके कहा कि हे भगवान! पृथ्वी पर एक सगड़ राजा है। उसके 60 हजार पुत्रा हैं। उनको ऐसी सिरड़ उठी है कि मेरे को खोद डाला। वहाँ मनुष्यों के खाने के लिए अन्न भी उत्पन्न नहीं हो सकता। भगवान विष्णु ने कहा तुम जाओ, वे अब कुछ नहीं करेंगे। भगवान विष्णु ने देवराज इन्द्र को बुलाया और समझाया कि राजा सघड़ के 60 हजार लड़के यज्ञ कर रहे हैं। यदि उनकी 100 यज्ञ पूरी हो गई तो तुम्हारी इन्द्र गद्दी उनको देनी पडे़गी, समय रहते कुछ बनता है तो कर ले। इन्द्र ने हलकारे अर्थात् अपने नौकर भेजे, उनको सब समझा दिया। रात्रि के समय राजा सघड़ के पुत्रा सोए पड़े थे। घोड़ा वृक्ष से बाँध रखा था। उन देवराज के फरिश्तों ने घोड़ा खोलकर कपिल तपस्वी की जाँघ पर बाँध दिया। कपिल ऋषि वर्षों से तपस्यारत था। जिस कारण से उसका शरीर अस्थिपिंजर जैसा हो गया था। आसन पदम लगाए हुए था, टाँगें पतली-पतली थी। जैसे वृक्ष की जड़ों की मिट्टी वर्षा के पानी से बह जाती हैं और जड़ों के बीच में 6.7 इंच का अन्तर (gap) हो जाता है, ऋषि कपिल जी की टाँगें ऐसी थीं। इन्द्र के हलकारों ने घोड़े को टाँगों के बीच के रास्ते में से जाँघ के पास रस्से से बाँध दिया।(The Real Story)
राजा के लड़कों ने सुबह उठते ही घोड़ा देखा। उसकी खोज में युद्ध करने की तैयारी करके 60 हजार का लंगार चल पड़ा। घोड़े के पद्चिन्हों के साथ-साथ कपिल मुनि के आश्रम में पहुँच गए। घोड़े को बँधा देखकर सगड़ राजा के पुत्रों ने ऋषि की ही कोख में (दोनांे बाजुओं के नीचे काखों को हरियाणवी भाषा में हींख कहते हैं) भाले चुभो दिए। कपिल ऋषि की पलकें इतनी लम्बी बढ़ चुकी थी कि जमीन पर जा टिकी थी। ऋषि को पीड़ा हुई तो क्रोधवश पलकों को हाथों से उठाया, आँखों से अग्नि बाण छूटे। 60 हजार सगड़ के पुत्रों की सेना की पूली-सी बिछ गई अर्थात् 60 हजार सगड़ के बेटे मरकर ढे़र हो गए।(The Real Story)
सूक्ष्मवेद में कहा है कि:-
60 हजार सगड़ के होते, कपिल मुनिश्वर खाए।
जै परमेश्वर की करें भक्ति, तो अजर-अमर हो जाए।।
72 क्षौणी खा गया, चुणक ऋषिश्वर एक।
देह धारें जौरा फिरैं, सभी काल के भेष।।
दुर्वासा कोपे तहाँ, समझ न आई नीच।
56 करोड़ यादव कटे, मची रूधिर की कीच।।

भावार्थ:- कपिल मुनि जी, चुणक मुनि जी तथा दुर्वासा मुनि जी संसार में कितने प्रसिद्ध हैं, ये सब काल ब्रह्म की भक्ति करने वाले भेषधारी ऋषि हैं। ये चलती-फिरती मौत थी। चलती-फिरती मनुष्य रूप में घाल हैं। (घाल = एक मिट्टी के छोटे मटके को तांत्रिक विद्या से आकाश में उड़ाकर दुश्मन पर छोड़ता है। उससे बहुत हानि होती है।) गलती से भोले प्राणी इनको महान आत्मा मानते हैं। ये सब ज्ञानी आत्मा थे, ये सब उदार हृदय के थे। इन्हांेने परमात्मा प्राप्ति के लिए अपना कल्याण कराने के लिए तन-मन-धन अर्पित कर दिया, परंतु तत्वदर्शी सन्त न मिलने के कारण इन्होंने काल ब्रह्म को एक समर्थ प्रभु मानकर गलती की और उसी की साधना ओम् (ॐ) नाम के जाप के साथ तथा अधिक हठ योग समाधि के द्वारा की, जिससे परमात्मा प्राप्ति तो है ही नहीं, उल्टा हानि होती है क्योंकि यह साधना शास्त्रा विरूद्ध है।(The Real Story)
गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24 में कहा है कि शास्त्राविधि को त्यागकर जो मनमाना आचरण करते हैं, उनकी साधना व्यर्थ है। वे उदार आत्माऐं इसी कारण काल ब्रह्म की अनुत्तम गति में स्थित रहें।(The Real Story)
गीता अध्याय 17 श्लोक 5, 6 में कहा है कि:-
जो मनुष्य शास्त्रा विधि रहित केवल मन कल्पित घोर तप को तपते हैं और दम्भ अहंकार से युक्त, कामना आसक्ति अभिमान से युक्त हैं। (गीता अध्याय 17 श्लोक 5)
शरीर में स्थित सर्व कमलों में देव शक्तियों तथा पूर्ण परमात्मा तथा मुझे भी कृश करने वाले अर्थात् कष्ट देने वाले अज्ञानियों को तू असुर स्वभाव के जान। (गीता अध्याय 17 श्लोक 6)
यही प्रमाण गीता अध्याय 16 श्लोक 17 से 20 में है।(The Real Story)
 वे अपने आपको श्रेष्ठ मानने वाले घमण्डी पुरूष धन और मान के मद से युक्त होकर केवल नाममात्रा यज्ञों द्वारा पाखण्ड से शास्त्राविधि रहित पूजन करते हैं। (गीता अध्याय 16 श्लोक 17)(The Real Story)
अहंकार, बल, घमण्ड, कामना, क्रोध आदि के वश और दूसरों की निन्दा करने वाले पुरूष अपने और दूसरों के शरीर में स्थित मुझसे द्वेष करने वाले होते हैं। (गीता अध्याय 16 श्लोक 18)(The Real Story)
उन द्वेष करने वाले पापाचीर क्रूरकर्मी “जो वचन से करोंड़ांे व्यक्तियों की हत्या करने वाले” नराधमों अर्थात् नीच मनुष्यों को मैं संसार में बार-बार आसुरी अर्थात् राक्षसी योनियों में ही डालता हूँ। (गीता अध्याय 16 श्लोक 19) सूक्ष्मवेद में भी इन्हें नीच कहा है:-
दुर्वासा कोपे तहाँ, समझ न आई नीच।
56 करोड़ यादव कटे, मची रूधीर की कीच।।

हे अर्जुन! वे मूर्ख मुझको न प्राप्त होकर ही जन्म-जन्म में आसुरी योनियों को प्राप्त होते हैं, उससे भी अति नीच गति को प्राप्त होते हैं अर्थात् घोर नरक में गिरते हैं। (गीता अध्याय 17 श्लोक 20)(The Real Story)
उपरोक्त प्रमाणों से सिद्ध हुआ कि गीता अध्याय 7 श्लोक 18 में गीता ज्ञान दाता ने अपनी साधना से होने वाली गति को भी इसलिए अनुत्तम अर्थात् घटिया बताया है। कहा है कि:-
गीता अध्याय 7 श्लोक 18 = गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि जो चैथी प्रकार के ज्ञानी साधक हैं, वे सभी हंै तो उदार क्योंकि परमात्मा प्राप्ति के लिए अपने शरीर के नष्ट होने की भी प्रवाह नहीं की और हजारों वर्ष भूखे-प्यासे साधनारत रहे, परंतु तत्वदर्शी सन्त न मिलने के कारण वे सभी मेरी अनुत्तम अर्थात् घटिया गति अर्थात् ब्रह्म साधना से होने वाले मोक्ष जो ऊपर ऋषियों को हुआ, उसमें स्थित रहे अर्थात् जन्म-मरण, चैरासी लाख योनियों के चक्कर वाली गति में रह गए। (गीता अध्याय 7 श्लोक 18)(The Real Story)
निष्कर्ष:- चुणक ऋषि, दुर्वासा ऋषि तथा कपिल ऋषि ने जो ओम् (ॐ) नाम जाप किया, उसकी भक्ति के फलस्वरूप ये कुछ समय ब्रह्म लोक में जाऐंगे। वहाँ भक्ति समाप्त करके फिर पृथ्वी पर राजा बनेंगे क्योंकि सूक्ष्मवेद में लिखा है:-
तप से राज, राज मध मानम्, जन्म तीसरे शुकर स्वानम्।
फिर कुत्ता, गधा बनेंगे, फिर नरक जाएंगे। जब कुत्ते बनेंगे, तब इनके सिर में कीड़े पड़ेंगे। जो व्यक्ति इनके श्राप से मरे थे, उनका पाप इनको भोगना पड़ेगा, कीड़े इनका माँस चुन-चुनकर खाऐंगे। इसलिए गीता में भी ऐसे साधकों के विषय में जो बताया है, वो आप जी ने ऊपर पढ़ लिया।(The Real Story)

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